केरल सरकार ने राज्य लोकायुक्त अधिनियम 1999 में एक अध्यादेश के माध्यम से संशोधन करने का प्रस्ताव दिया है, जिसकी राज्य के विपक्षी दलों ने आलोचना की है।
क्या हैं प्रस्तावित संशोधन?
- अध्यादेश में लोकायुक्त अधिनियम की धारा 14 में संशोधन का प्रस्ताव किया गया है क्योंकि यह इसका सबसे कड़ा प्रावधान है। धारा के अनुसार, लोकायुक्त की ‘घोषणा’ कि एक लोक सेवक, जिसके खिलाफ आरोप सिद्ध हो, को पद पर बने नहीं रहना चाहिए।
- यह प्रकृति में बाध्यकारी है। इसके अलावा, अपील के लिए कोई प्रावधान नहीं है।
- अध्यादेश में इस आशय का संशोधन करने का प्रस्ताव है कि राज्यपाल, सरकार या प्राधिकरण तीन महीने के भीतर लोकायुक्त के निष्कर्षों पर निर्णय ले सकते हैं।
- यह अपील के लिए भी प्रावधान करता है।
- प्रस्तावित संशोधन के अनुसार, लोकायुक्त के पास केवल सिफारिशें करने या सरकार को रिपोर्ट भेजने की शक्ति होगी, मतलब यह कि लोकायुक्त की सिफारिश बाध्यकारी न होकर महज सलाहकारी प्रकृति की हो जाएगी। इससे लोकायुक्त की शक्ति कम हो जाएगी।
संशोधन के पीछे मंशा
- पिछली एलडीएफ (जो वर्तमान में भी सत्तारूढ़ है ) सरकार में, उच्च शिक्षा मंत्री के टी जलील को पद छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था जब लोकायुक्त ने पाया कि उन्होंने अपने कार्यालय का दुरुपयोग किया था।
- जलील को राज्य अल्पसंख्यक विकास निगम में अपने रिश्तेदार की अवैध नियुक्ति से संबंधित एक मामले का सामना करना पड़ा था।
- केरल सरकार का कहना है कि एक्ट की धारा 14 मुख्यमंत्री की सलाह पर राज्यपाल द्वारा विधिवत नियुक्त मंत्री को हटाने के बराबर है, और संविधान के अनुच्छेद 163 और 164 का उल्लंघन करती है।
आलोचक क्या कहते हैं?
- आश्चर्य है अब उसी प्रावधान को असंवैधानिक माना जा रहा है, जब ईके नयनार के नेतृत्व वाली तत्कालीन एलडीएफ सरकार ने 1999 में इसे कानून बनाया था।
- अध्यादेश ऐसे समय में आया है जब केरल के मुख्यमंत्री विजयन और उच्च शिक्षा मंत्री आर बिंदू के खिलाफ लोकायुक्त के पास शिकायतें लंबित हैं।
- भ्रष्टाचार मुक्त शासन के प्रति सही मायने में समर्पित सरकार को आम तौर पर ऐसे कानून के बारे में चिंतित नहीं होना चाहिए जो भ्रष्टाचार के मामले में एक लोक सेवक को पद छोड़ने का निर्देश देने के लिए एक स्वतंत्र न्यायिक मंचअनुमति देता है ।