- उमाशंकर मिश्र (Twitter handle : @usm_1984)
नई दिल्ली, 1 अगस्त : एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति सूक्ष्मजीवों में प्रतिरोधक क्षमता लगातार बढ़ रही है। एक नये अध्ययन में पता चला है कि केरल के मैन्ग्रोव क्षेत्रों में पाये जाने सूक्ष्मजीवों में भी एंटीबायोटिक प्रतिरोधी जीन्स मौजूद हैं।
इन सूक्ष्मजीवों में एक्रिलफैविन,तांबा, फुरोक्विनोलोन, बीटा-लैक्टमेजऔर मेथिलिसिन प्रतिरोधी जीन्स की उपस्थिति के बारे मेंवैज्ञानिकों को पता चला है। भारी धातुओं और एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता रखने वाले जीन्स मानवीय गतिविधियों से प्रभावित क्षेत्रों के अलावा मूल पर्यावरणीय स्थलों में भी मिले हैं।
इस अध्ययन से जुड़े केरल केंद्रीय विश्वविद्यालय से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता डॉ रणजीत कुमावत ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “ये प्रतिरोधी जीन्स यदि गैर-हानिकारक सूक्ष्मजीवों से रोगजनक सूक्ष्मजीवोंमें स्थानांतरित होजाते हैं तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं। इन जीन्स के स्थानांतरण से अन्य सूक्ष्मजीवों में भी जैव प्रतिरोधी दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न हो सकती है।”
डॉ कुमावत के अनुसार, “इस तरह के प्रतिरोधी जीन्स की बड़े पैमाने पर मौजूदगी नए जीन्स के स्रोत के रूप में उभर सकती है। यह एक खतरे की घंटी हो सकती है, क्योंकि इससे सूक्ष्मजीवों की प्रतिरोधक क्षमता में बढ़ोत्तरी हो सकती है, जिसका बीमारियों के उपचार पर महत्वपूर्ण असर पड़ सकता है।”
इस अध्ययन मेंकेरल से लिए गए मैन्ग्रोव तलछट के नमूनों के मेटाजेनोमिक प्रोफाइल का विश्लेषण किया गया है। सूक्ष्मजीवों की पहचान करने के लिए अध्ययन में नेक्स्ट जेनरेशन सीक्वेंसिंग का उपयोग किया गया है, जो जीवों के समूह विश्लेषण की नवीनतम तकनीक है। इस तकनीक के उपयोग से प्रयोगशाला में सूक्ष्मजीव विकसित करने की जरूरत नहीं पड़ती और लाखों सूक्ष्मजीवों की पहचान की जा सकती है।
नेक्स्ट जेनरेशन सीक्वेंसिंग तकनीक के अंतर्गत सूक्ष्मजीवों के डीएनए उनके प्राकृतिक आवास से प्राप्त किए जाते हैं, जिनका उपयोग बारकोड के रूप में किया जाता है। इन बारकोड के ऑनलाइन डाटाबेस होते हैं, जो उनकी पहचान के साथ-साथ यह भी बताते हैं कि उन सूक्ष्मजीवों को कहां से प्राप्त किया गया है।
इस अध्ययन में शामिल वैज्ञानिकों के अनुसार, समृद्ध सूक्ष्मजीव विविधता उन असंख्य लाभों में से एक है, जो मैन्ग्रोव हमें प्रदान करते हैं।शहरीकरण और वनों की कटाई के कारण मैन्ग्रोव पारिस्थितिक तंत्र धीरे-धीरे दुनिया भर में समाप्त हो रहा है। इसके अलावा घर एवं औद्योगिक अपशिष्टों के कारण मैन्ग्रोव पारिस्थितिक तंत्र स्थानीय जानवरों, पक्षियों और मछलियों के रहने लायक नहीं बचे हैं।
डॉ कुमावत के मुताबिक, “मैन्ग्रोव के संरक्षण को प्रोत्साहित करने और उन्हें बनाए रखने के प्रयास तेज किए जाने चाहिए। इसके अलावा, इस संदर्भ में मौलिक विज्ञान पर शोध को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता भी है। इस तरह की पहल से स्वास्थ्य और पर्यावरण पारिस्थितिकी के क्षेत्र में काम कर रहे वैज्ञानिक इस दिशा में कार्य करने के लिए आकर्षित होंगे।”
केरल केंद्रीय विश्वविद्यालय के जीनोमिक विज्ञान विभाग, पश्चिम बंगाल के पूर्व मेदिनीपुर स्थित इंस्टिट्यूट ऑफ इंटीग्रेटिव ओमिक्स ऐंड एप्लाइड बायोटेक्नोलॉजी, मंगलुरू के एनआईटीटीई यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन ऐंड रिसर्च, ब्राजील की फेडरल यूनिवर्सिटी ऑफ मिनास गेराइस, वर्जिनिया कॉमनवेल्थ यूनिवर्सिटी और वर्जिनिया टेक यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा यह शोध संयुक्त रूप से किया गया है। इस अध्ययन के नतीजे शोध पत्रिका साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित किए गए हैं।
अध्ययनकर्ताओं में डॉ कुमावत के अलावा मैडान्गचॉन्क इम्चेन, देबमाल्या, एलिन वैज़, एरिस्टोटेल्स गोस-नेटो, संदीप तिवारी, प्रीतम घोष, एलिस आर. वैटम और वास्को एज्वेडो शामिल थे। यह अध्ययन विज्ञान और इंजीनियरी अनुसंधान बोर्ड की वित्तीय सहायता और यूजीसी द्वारा दी गई फेलोशिप के तहत मिले अनुदान पर आधारित है।
(इंडिया साइंस वायर)