- दिनेश सी. शर्मा (Twitter handle: @dineshcsharma)
नई दिल्ली, 15 नवंबर : देश के अधिकांश हिस्सों में भूजल का अत्यधिक दोहन एक प्रमुख पर्यावरणीय चुनौती है। भूजल के अंधाधुंध दोहन से भूमिगत जल स्तर में तेजी से हो रही गिरावट के साथ-साथ कार्बन उत्सर्जन में भी बढ़ोतरी हो रही है। भारतीय शोधकर्ताओं के एक ताजा अध्ययन से मिले परिणामों में यह चेतावनी दी गई है।
बड़े पैमाने पर पानी के पंपों या ट्यूबवैल के जरिये हो रहा भूमिगत जल का दोहन दो रूपों में कार्बन उत्सर्जन को भी बढ़ावा दे रहा है। पानी निकालने के लिए पंपों के उपयोग से होने वाला उत्सर्जन और बायोकार्बोनेट के निष्कर्षण से होने वाला कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन इसमें शामिल है। अधिकांश भूजल भंडारों में रेत, बजरी, मिट्टी और कैल्साइट होते हैं। हाइड्रॉन आयन कैल्साइट के साथ अभिक्रिया करके बाइकार्बोनेट और कैल्शियम बनाते हैं। भूजल जब वायुमंडल के संपर्क में आता है तो कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित होती है और कैल्साइट गाद के रूप में जमा हो जाता है।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, गांधीनगर के शोधकर्ताओं ने पंपिंग हेतु आवश्यक ऊर्जा और भूजल के रासायनिक गुणों संबंधी आंकड़ों के माध्यम से पंपिंग और बाइकार्बोनेटों के कारण होने वाले कार्बन उत्सर्जन का आकलन किया है। शोधकर्ताओं ने पाया है कि देश में प्रति वर्ष होने वाले कुल कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में भूजल दोहन से होने वाले कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन (पंपिंग एवं बाइकार्बोनेट) का भी दो से सात प्रतिशत योगदान होता है।
भूजल दोहन से होने वाला कुल कार्बन उत्सर्जन 3.2 से 13.1 करोड़ टन प्रतिवर्ष आंका गया है। इस अध्ययन के अनुसार, भारत में बाइकार्बोनेट के कारण होने वाले कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन की मात्रा (लगभग 0.072 करोड़ टन प्रति वर्ष) भूजल पम्पिंग के कारण होने वाले उत्सर्जन (3.1 से 13.1 करोड़ टन प्रति वर्ष) की तुलना में बहुत कम है।
इस अध्ययन में किए गए आकलन केंद्रीय भूजल बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी) और नासा के उपग्रह मिशन जीआरएसीई (ग्रेविटी रिकवरी एंड क्लाइमेट एक्सपेरिमेंट) के आंकड़ों पर आधारित हैं। इन आंकड़ों में भूजल दोहन के स्रोतों की विशिष्ट उत्पादकता, बाइकार्बोनेट सांद्रता के मापन और विद्युत पंपों के उपयोग शामिल थे। केंद्रीय भूजल बोर्ड देश भर के 24,000 स्थानों के भूजल स्तर की जांच करता रहता है। इसके साथ ही यह बरसात से पहले, जब बाइकार्बोनेट आयनों की सांद्रता अधिकतम होती है, भूजल की गुणवत्ता की जांच भी करता है।
प्रत्येक राज्य में मुख्य रूप से सिंचाई हेतु विभिन्न गहराईयों पर उपयोग किए जाने वाले पंपों के वितरण की जानकारी लघु सिंचाई संगणना अभिलेखों से प्राप्त की गई थी। इससे भूजल पंपिंग के लिए आवश्यक ऊर्जा की गणना करने में मदद मिली है। इलेक्ट्रिक पंप देश में उपलब्ध कुल पंपिंग ऊर्जा स्रोतों का लगभग 70 प्रतिशत कवर करते हैं। हालांकि, गंगा के मैदानी क्षेत्रों में डीजल पंपों का अधिक इस्तेमाल किया जाता है।
इस शोध में पंजाब के 500 किसानों को लेकर एक क्षेत्रीय सर्वेक्षण भी किया गया। शोधकर्ताओं के अनुसार, “किसानों से एकत्र किए गए विशिष्ट आंकड़ों से यह पाया गया कि मिट्टी की नमी की जानकारी के आधार पर कम लागत वाली युक्ति अपनाकर योजनाबद्ध तरीके से सिंचाई द्वारा भूजल पंपिंग और कार्बन उत्सर्जन कम करके एक स्थायी समाधान निकाला जा सकता है।”
भारत दुनिया का सबसे बड़ा भूजल उपयोगकर्ता है। यहां सिंचाई के लिए 230 अरब घन मीटर भूजल प्रतिवर्ष दोहन होता है। भारत में कुल अनुमानित भूजल 122 से 199 अरब घन मीटर पाया गया है। देश के कुल सिंचित क्षेत्रफल के 60 प्रतिशत से अधिक भूभाग में सिंचाई के लिए भूजल का ही उपयोग किया जाता है। ऐसे क्षेत्रों में सिंधु-गंगा के मैदान और भारत के उत्तर-पश्चिमी, मध्य और पश्चिमी भाग शामिल हैं। कुछ क्षेत्रों (पश्चिमी भारत और सिंधु-गंगा के मैदान) में 90 प्रतिशत से अधिक भाग भूजल द्वारा सिंचित किया जाता है।
शोध टीम के एक सदस्य डॉ विमल मिश्रा ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि, “भारत में भूजल में गिरावाट की पर्यावरणीय समस्या कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन से अधिक गंभीर है। इसीलिए, भूजल के उपयोग का विनियमन करना आवश्यक है।”
यूनिवर्सिटी ऑफ मैरीलैंड के वायुमंडलीय एवं महासागर विज्ञान तथा पृथ्वी प्रणाली विज्ञान के प्रोफेसर और वर्तमान में आईआईटी-बॉम्बे में अतिथि प्रोफेसर डॉ. रघु मुर्तुगुड्डे का कहना है कि “भूजल दोहन से कार्बन उत्सर्जन की चेतावनी हमेशा यह याद दिलाती रहती है कि हर एक मानवीय गतिविधि के कई प्रभाव हो सकते हैं। इसके कई अनापेक्षित परिणाम भी हो सकते हैं। सभी के लिए जल की एक समान उपलब्धता और गहराई से भूजल दोहन के कारण फ्लोराइड और आर्सेनिक में वृद्धि जैसे अन्य कारकों पर पैनी नजर बनाए रखने की भी आवश्यकता है।”
शोधकर्ताओं में विमल मिश्रा और आकर्ष अशोक (भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान गांधीनगर); कमल वत्ता (कोलंबिया इंटरनेशनल प्रोजेक्ट ट्रस्ट, नई दिल्ली) और उपमन्यु लाल (कोलंबिया यूनिवर्सिटी, न्यूयॉर्क) शामिल थे। यह अध्ययन शोध पत्रिका अर्थ्स फ्यूचर में प्रकाशित हुआ है। (इंडिया साइंस वायर)
भाषांतरण-शुभ्रता मिश्रा