उच्च तकनीक से बनते थे पुरातन काल में सिरेमिक बर्तन

शुभ्रता मिश्रा

Twitterhandle : @shubhrataravi

वास्को-द-गामा (गोवा), 20जून : हजारों वर्ष पूर्व उपयोग होने वाले मिट्टी के काले रंग के चमकीले बर्तनों या मृदभाण्डों की उत्कृष्ट बनावट, उनकी चमक और तकनीक पुरातत्वविदों के लिए कौतूहल का विषय रही है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय केपुरातत्वविदों के एक अध्ययन में इन बर्तनों को बनाने में उपयोग होने वाली उन्नत सिरेमिक तकनीक के बारे में कई अहम तथ्यों के बारे में खुलासा किया गया है।

इस अध्ययन के दौरान 2000 ईसा पूर्व से 300-200 ईसा पूर्व के काले चमकीले मृदभाण्डों अर्थात ब्लैक स्लिप्ड वेयर में कार्बन के साथ-साथ मैग्नीशियम, एल्युमीनियम, सिलिकॉन, क्लोरीन, मैंग्नीज, सोडियम, टाइटेनियम और आयरन जैसे तत्वों की उल्लेखनीय मौजूदगी की पुष्टि हुई है।

पुरातात्विक उत्खनन के दौरान प्रायः सभी ऐतिहासिक कालखंडों में उपयोग होने वाले मिट्टी के बर्तनों या मृदभाण्डों के अवशेष पाए गए हैं। पर, अन्य मृदभाण्डों के मुकाबले काले चमकीले मृदभाण्डों की ओर पुरात्वविदों का ध्यान कम ही गया है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग से जुड़ी पुरातत्वविद प्रोफेसर विभा त्रिपाठी और उनकी शोधार्थी पारुल सिंह ने काले चमकीले मृदभाण्डों पर गहन शोध किया है।

इन बर्तनों को बनाने की कला के बुनियादी स्वरूप और बनावट को समझने के लिए काले चमकदार मृदभाण्डों के नमूने विंध्य-गंगा क्षेत्र में स्थित चार स्थानों से एकत्रित किए गए हैं। इन क्षेत्रों में उत्तरप्रदेश के मिर्जापुर का आगियाबीर, सोनभद्र में रायपुरा, चंदौली में लतीफशाह और बलिया का खैराडीह शामिल हैं। इन नमूनों का एनर्जी-डिस्प्रेसिव एक्स-रे स्पेक्ट्रोस्कोपी और स्कैनिंग इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी के जरिये वैज्ञानिक परीक्षण एवं विश्लेषण किया गया है।

अध्ययन से जुड़ी प्रमुख शोधकर्ता प्रोफेसर विभा त्रिपाठी ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “काले चमकीले मृदभाण्डों में दो तरह के बर्तन नादर्न ब्लैक पॉलिश्ड वेयर और ब्लैक स्लिप्ड वेयर शामिल हैं। कई बार इन दोनों प्रकार के काले बर्तनों में अंतर कर पाना मुश्किल होता है। लेकिन, गहन शोधों से पता चला है कि दोनों काले मृदभाण्डों में मिट्टी के साथ मिलाए जाने वाले तत्वों की मात्रा में भिन्नता होती है।”

प्रोफेसर विभा त्रिपाठी और पारुल सिंह

 

शोधकर्ताओं का मानना है कि पूर्व-लौह युग की तुलना में लौहयुग के मिट्टी के बर्तन अधिक बेहतर हुआ करते थे क्योंकि उस समय तक लोहा गलाने के लिए धातुकर्म भट्टियों का उपयोग होने लगा था। पुरातत्वविदों का अनुमान है कि इसी तकनीक का उपयोग कुम्हार काले चमकीले मृदभाण्ड बनाने के लिए भट्टियों में लगभग 900-950 डिग्री सेल्सियस तक उच्च तापमान उत्पन्न करने में करते रहे होंगे।

प्रोफेसर त्रिपाठी के मुताबिक, “मृदभाण्डों के विभिन्न स्वरूप पूरे भारत मे दिखाई देते हैं।इनमें नवपाषाणकाल के हाथ के बने मृदभाण्ड, महाश्मकाल और हड़प्पाकालीन मृदभाण्ड शामिल हैं। इनके अलावा कुछ विशिष्ट प्रकार के मृदभाण्ड भी पाए गए हैं, जिनमें काले चमकीले मृदभाण्ड, चित्रित धूसर मृदभाण्ड और गेरू चित्रित मृदभाण्ड आदि शामिल हैं। इन मृदभाण्डों का पाया जाना उस समय के मृदभाण्ड बनाने की कला एवं उनकी विविधिता को दर्शाता है।”

भौगोलिक दृष्टि से काले चमकीले मृदभाण्ड विस्तृत क्षेत्र में पाए गए हैं। उत्तर में मांडा (जम्मू-कश्मीर) से लेकर दक्षिण में पुदुरु (नेल्लोर, आंध्र प्रदेश) और पश्चिम में राजस्थान के बीकानेर से लेकर पूर्व में महास्थानगढ़ (बांग्लादेश) तक उपयोग किए जाते थे।

ब्लैक स्लिप्ड वेयर के अवशेष

बर्तनों के टुकड़ों का हजारों सालों बाद भी उसी चमक के साथ बने रहना अपनेआप में उस समय की विशिष्ट और उत्कृष्ट सिरेमिक तकनीक को दर्शाता है। हालांकि, इन मृदभाण्डों में प्रयुक्त होने वाले पदार्थों के बारे में अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि वह तत्व कौन-सा है, जो इनको विशिष्ट बनाता है।


नादर्न ब्लैक पॉलिश्ड वेयर के अवशेष

मृदभाण्डों में मिलने वाले विविध तत्वों में से प्रत्येक की क्या भूमिका हो सकती है, यह वैज्ञानिक शोध का विषय हो सकता है। शोधकर्ताओं के अनुसार, इन तथ्यों को केंद्र में रखकर वैज्ञानिक अध्ययन किए जाएं तो उच्च गुणवत्ता वाले सिरेमिक उत्पादों की कला और उत्पादन के पुनरुत्थान में मदद मिल सकती है।

(इंडिया साइंस वायर)

 

Written by 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *