उमाशंकर मिश्र (Twitter handle : @usm_1984)
नई दिल्ली, 12 दिसंबर (इंडिया साइंस वायर): कांच उद्योग, बालू खनन, पत्थर तोड़ने के क्रशर एवं पत्थर खदानों में काम करने वाले मजदूरों से लेकर मूर्तिकारों, पत्थर तराशने वाले कारीगरों और निर्माण क्षेत्र से जुड़े कामगारों को फेफड़ों की लाइलाज बीमारी सिलिकोसिस से ग्रस्त होने खतरा सबसे अधिक होता है। भारतीय शोधकर्ताओं द्वारा विकसित दो नए फिल्टरेशन उपकरण इन कामगारों के लिए वरदान साबित हो सकते हैं। इस उपकरणों के उपयोग से कामगार सिलिका धूल कणों के गुबार के बावजूद आसानी से सांस ले सकेंगे और सिलिकोसिस जैसी घातक बीमारी की गिरफ्त में आने से बच सकेंगे।
केंद्रीय इलेक्ट्रॉनिकी अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (सीरी), पिलानी के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित दोनों फिल्टरेशन उपकरण सिलिका के महीन कणों को बेहद तेजी से अवशोषित कर सकते हैं, जिससे हानिकारक बारीक कण सांस के जरिये कामगारों के फेफड़ों तक नहीं पहुंच पाते। इनमें से एक उपकरण का उपयोग सिर्फ एक कामगार के लिए किया जा सकता है। जबकि, दूसरा उपकरण एक साथ चार कामगारों को सिलिका कणों से बचाने में उपयोगी हो सकता है।
ये फिल्टरेशन उपकरण अत्यंत सूक्ष्म बारीक कणों को भी अपनी उच्च अवशोषक क्षमता से खींच लेते हैं। यह उपकरण मनुष्य के सांस लेने से 10 गुना अधिक तेजी से धूल कणों को सोख सकता है। हवा में मौजूद धूल कणों को सोखकर यह उन कणों को पानी में घोल देता है, जिससे धूल कणदोबारा हवा में नहीं मिल पाते। दूसरी ओर,पत्थरों की तलछट एक जगह एकत्रित हो जाती है, जिसे बाद में दूसरे कामों में उपयोग किया जा सकता है। चार कामगारों को ध्यान में रखकर बनाए गए उपकरण में कुछ बदलावों के साथ चार अवशोषक शाखाएं लगाई गई हैं। इन चारों शाखाओं की अपनी अलग नियंत्रण इकाई है।
सीरी के शोधकर्ता डॉ पी.सी. पांचारिया के अनुसार “यह फिल्टरेशन यंत्र अधिकतर धूल कणों को सोख लेता है और धूल के कारण होने वाले प्रदूषण को नियंत्रित करने में मदद करता है। इस उपकरण की एक खासियत इसमें उपयोग की गई सेल्फ-फिल्टर क्लीनिंग तकनीक है। इस तकनीक के कारण उपकरण का उपयोग अकुशल लोग भी आसानी से कर सकते हैं। पत्थर की नक्काशी या कटाई करते हुए पीएम 2.5 और पीएम 10 जैसे अत्यंत सूक्ष्म धूल कणों का उत्पादन सबसे अधिक होता है। पीएम 2.5 को ही सिलिकोसिस के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार माना जाता है। लेकिन इस उपकरण के उपयोग से धूल कण हवा में ही अवशोषित कर लिए जाते हैं और कामगारों के शरीर में प्रवेश नहीं कर पाते हैं।”
सिलिकोसिस एक ऐसी बीमारी है जो विभिन्न व्यावसायिक रूपों देखने को मिलती है। आयुध कारखानों में सिलकोसिस का दायरा 3.5 प्रतिशत है तो स्लेट-पेंसिल उद्योग में 54.6 प्रतिशत कामगार इस जानलेवा बीमारी से ग्रस्त पाए जाते हैं। बीमारी के विस्तार में इस तरह की विविधता के लिए कई कारक जिम्मेदार हैं। इनमें अलग-अलग वातावरण में सिलिका कणों का घनत्व, कार्य की जरूरतों और सिलिका कणों से संपर्क की अवधि मुख्य रूप से शामिल है। ओडिशा, गुजरात, राजस्थान, पांडिचेरी, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, झारखंड और पश्चिम बंगाल के निर्माण एवं खनन गतिविधियों से जुड़े कामगार इस बीमारी से सबसे अधिक प्रभावित हैं।
सिलिकोसिस एक लाइलाज बीमारी है जो अंततः मरीज को निष्क्रिय बनाकर छोड़ देती है। कोई स्पष्ट उपचार नहीं होने के कारण सिलिकोसिस से बचाव का एकमात्र उपाय कामगारों को सिलिका युक्त धूल कणों के संपर्क में आने से रोकना है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इस उपकरण के उपयोग से विभिन्न व्यावसायिक गतिविधियों से जुड़े स्वस्थ कामगारों का श्रम बल तैयार करने में मदद मिल सकती है। (इंडिया साइंस वायर)